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سلسله احاديث صحيحه کل احادیث 4035 :ترقیم البانی
سلسله احاديث صحيحه کل احادیث 4103 :حدیث نمبر
سلسله احاديث صحيحه
سفر، جہاد، غزوہ اور جانور کے ساتھ نرمی برتنا
यात्रा, जिहाद, जंग और जानवरों के साथ नरमी करना
1406. فتح پر دف بجانے کی نذر پوری کرنا
“ जीत पर डफ़ बजाने की नज़र पूरी करना ”
حدیث نمبر: 2147
پی ڈی ایف بنائیں مکررات اعراب Hindi
-" إن كنت نذرت فاضربي، وإلا فلا".-" إن كنت نذرت فاضربي، وإلا فلا".
سیدنا بریدہ رضی اللہ عنہ کہتے ہیں کہ رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلم کسی غزوے کے لیے نکلے۔ جب واپس آئے تو ایک سیاہ رنگ کی لڑکی آپ صلی اللہ علیہ وسلم کے پاس آئی اور کہا: اے اللہ کے رسول! میں نے نذر مانی تھی کہ اگر اللہ تعالیٰ نے آپ کو عافیت و سلامتی کے ساتھ لوٹایا تو میں آپ کے سامنے دف بجاؤں گی۔ رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلم نے فرمایا: اگر تو نے (واقعی) نذر مانی ہے تو دف بجالے، ورنہ نہیں۔ اس نے دف بجانا شروع کردیا۔ سیدنا ابوبکر رضی اللہ عنہ تشریف لائے وہ بجاتی رہی، سیدنا علی رضی اللہ عنہ تشریف لائے وہ بجاتی رہی، پھر سیدنا عثمان رضی اللہ عنہ تشریف لائے وہ بجاتی رہی۔ پھر سیدنا عمر رضی اللہ عنہ تشریف لائے تو اس نے اپنے سرین کے نیچے دف رکھ دیا اور اس پر بیٹھ گئی۔ رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلم نے فرمایا: اے عمر! شیطان تجھ سے ڈرتا ہے، میں بیٹھا ہوا تھا یہ دف بجاتی رہی، ابوبکر آئے یہ بجاتی رہی، پھر علی آئے یہ بجاتی رہی، پھر عثمان آئے یہ بجاتی رہی۔ عمر! تم جب داخل ہوئے تو اس نے دف رکھ دیا۔
हज़रत बुरेदा रज़ि अल्लाहु अन्ह कहते हैं कि रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम किसी लड़ाई के लिये निकले। जब वापस आए तो एक काले रंग की लड़की आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास आई और कहा कि ऐ अल्लाह के रसूल मैं ने नज़र मानी थी कि यदि अल्लाह तआला ने आप को सुरक्षित और स्वस्थ लौटाया तो में आप के सामने डफ़ बजाऊं गी। रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया ! “यदि तू ने (सच में) नज़र मानी है तो डफ़ बजाले वरना नहीं।” उस ने डफ़ बजाना शुरू कर दिया। हज़रत अबु बक्र रज़ि अल्लाहु अन्ह आए वह बजाती रही, हज़रत अली रज़ि अल्लाहु अन्ह आए वह बजाती रही, फिर हज़रत उस्मान रज़ि अल्लाहु अन्ह आए वह बजाती रही। फिर हज़रत उमर रज़ि अल्लाहु अन्ह आए तो उस ने अपने कूल्हों के नीचे डफ़ रख दिया और उस पर बैठ गई। रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया ! “ऐ उमर शैतान तुझ से डरता है, मैं बेठा हुआ था यह डफ़ बजाती रही, अबु बक्र आए यह बजाती रही, फिर अली आए यह बजाती रही, फिर उस्मान आए यह बजाती रही। उमर जब तुम आए तो इस ने डफ़ रख दिया।”
سلسله احاديث صحيحه ترقیم البانی: 2261

قال الشيخ الألباني:
- " إن كنت نذرت فاضربي، وإلا فلا ".
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‏‏‏‏أخرجه الترمذي (3691) وابن حبان (4371 - الإحسان) والبيهقي (10 / 77)
‏‏‏‏وأحمد (5 / 353) من طريق الحسين بن واقد قال: حدثني عبد الله بن بريدة قال
‏‏‏‏: سمعت بريدة يقول: خرج رسول الله صلى الله عليه وسلم في بعض مغازيه،
‏‏‏‏فلما انصرف، جاءت جارية سوداء، فقالت: يا رسول الله! إني نذرت إن ردك الله
‏‏‏‏سالما أن أضرب بين يديك بالدف وأتغنى. فقال رسول الله صلى الله عليه وسلم ..
‏‏‏‏(فذكره) ، فجعلت تضرب، فدخل أبو بكر وهي تضرب، ثم دخل علي وهي تضرب، ثم
‏‏‏‏دخل عثمان وهي تضرب، ثم دخل عمر، فألقت الدف تحت استها، ثم قعدت عليه،
‏‏‏‏فقال رسول الله صلى الله عليه وسلم : " إن الشيطان ليخاف منك يا عمر! إني كنت
‏‏‏‏جالسا وهي تضرب، فدخل أبو بكر وهي تضرب، ثم دخل علي وهي تضرب، ثم دخل
‏‏‏‏عثمان وهي تضرب، فلما دخلت أنت يا عمر ألقت الدف ". وقال الترمذي: " حديث
‏‏‏‏حسن صحيح ". قلت: وإسناده جيد رجاله ثقات رجال مسلم وفي الحسين كلام لا يضر
‏‏‏‏قال الحافظ في " التقريب ": " صدوق له أوهام ".
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‏‏‏‏ولحديث الترجمة شاهد من حديث
‏‏‏‏عمرو بن شعيب عن أبيه عن جده: " أن امرأة أتت النبي صلى الله عليه وسلم ،
‏‏‏‏فقالت: يا رسول الله! إني نذرت أن أضرب على رأسك بالدف، قال: " أوفي بنذرك
‏‏‏‏". (تنبيه) : جاء عقب حديث بريدة في " موارد الظمآن " (493 - 494 / 2015)
‏‏‏‏زيادة: " وقالت: أشرق البدر علينا، من ثنيات الوداع، وجب الشكر علينا،
‏‏‏‏ما دعا لله داع، وذكر محققه الشيخ محمد عبد الرزاق حمزة رحمه الله تعالى في
‏‏‏‏الحاشية أن هذه الزيادة من الهامش، وبخط يخالف خط الأصل. وكم كنت أتمنى على
‏‏‏‏الشيخ رحمه الله أن لا يطبعها في آخر الحديث، وأن يدعها حيث وجدها: " في
‏‏‏‏الهامش " وأن يكتفي بالتنبيه عليها في التعليق، خشية أن يغتر بها بعض من لا
‏‏‏‏علم عنده، فإنها زيادة باطلة، لم ترد في شيء من المصادر المتقدمة ومنها "
‏‏‏‏الإحسان " الذي هو " صحيح ابن حبان " مرتبا على الأبواب الفقهية، بل ليس لها
‏‏‏‏أصل في شيء من الأحاديث الأخرى، على شهرتها عند كثير من العامة وأشباههم من
‏‏‏‏الخاصة أن النبي صلى الله عليه وسلم استقبل بذلك من النساء والصبيان حين دخل
‏‏‏‏المدينة في هجرته من مكة، ولا يصح ذلك كما كنت بينته في " الضعيفة " (2 / 63
‏‏‏‏/ 598) ، ونبهت عليه في الرد على المنتصر الكتاني (ص 48) واستندت في ذلك
‏‏‏‏على الحافظ العراقي، والعلامة ابن قيم الجوزية. وقد يظن بعضهم أن كل ما
‏‏‏‏يروى في كتب التاريخ والسيرة، أن ذلك صار جزءا لا يتجزأ من التاريخ الإسلامي
‏‏‏‏، لا يجوز إنكار شيء منه! وهذا جهل فاضح، وتنكر بالغ للتاريخ الإسلامي
‏‏‏‏الرائع، الذي يتميز عن تواريخ الأمم الأخرى بأنه هو وحده الذي
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‏‏‏‏
‏‏‏‏يملك الوسيلة
‏‏‏‏العلمية لتمييز ما صح منه مما لم يصح، وهي نفس الوسيلة التي يميز بها الحديث
‏‏‏‏الصحيح من الضعيف، ألا وهو الإسناد الذي قال فيه بعض السلف: لولا الإسناد
‏‏‏‏لقال من شاء ما شاء. ولذلك لما فقدت الأمم الأخرى هذه الوسيلة العظمى امتلأ
‏‏‏‏تاريخها بالسخافات والخرافات، ولا نذهب بالقراء بعيدا، فهذه كتبهم التي
‏‏‏‏يسمونها بالكتب المقدسة، اختلط فيها الحامل بالنابل، فلا يستطيعون تمييز
‏‏‏‏الصحيح من الضعيف مما فيها من الشرائع المنزلة على أنبيائهم، ولا معرفة شيء
‏‏‏‏من تاريخ حياتهم، أبد الدهر، فهم لا يزالون في ضلالهم يعمهون، وفي دياجير
‏‏‏‏الظلام يتيهون! فهل يريد منا أولئك الناس أن نستسلم لكل ما يقال: إنه من
‏‏‏‏التاريخ الإسلامي. ولو أنكره العلماء، ولو لم يرد له ذكر إلا في كتب
‏‏‏‏العجائز من الرجال والنساء؟ ! وأن نكفر بهذه المزية التي هي من أعلى وأغلى
‏‏‏‏ما تميز به تاريخ الإسلام؟ ! وأنا أعتقد أن بعضهم لا تخفى عليه المزية ولا
‏‏‏‏يمكنه أن يكون طالب علم بله عالما دونها، ولكنه يتجاهلها ويغض النظر عنها
‏‏‏‏سترا لجهله بما لم يصح منه، فيتظاهر بالغيرة على التاريخ الإسلامي، ويبالغ
‏‏‏‏في الإنكار على من يعرف المسلمين ببعض ما لم يصح منه، بطرا للحق، وغمصا
‏‏‏‏للناس. والله المستعان. (فائدة) : من المعلوم أن (الدف) من المعازف
‏‏‏‏المحرمة في الإسلام والمتفق على تحريمها عند الأئمة الأعلام، كالفقهاء
‏‏‏‏الأربعة وغيرهم وجاء فيها أحاديث صحيحة خرجت بعضها في غير مكان، وتقدم شيء
‏‏‏‏منها برقم (9 و 1806) ، ولا يحل منها إلا الدف وحده في العرس والعيدين،
‏‏‏‏فإذا كان كذلك، فكيف أجاز النبي صلى الله عليه وسلم لها أن تفي بنذرها ولا
‏‏‏‏نذر في معصية الله تعالى. والجواب - والله أعلم - لما كان نذرها مقرونا
‏‏‏‏بفرحها بقدومه صلى الله عليه وسلم من الغزو سالما، ألحقه صلى الله عليه وسلم
‏‏‏‏بالضرب على الدف في العرس والعيد وما لا شك فيه، أن الفرح بسلامته
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‏‏‏‏
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‏‏‏‏صلى الله عليه وسلم أعظم - بما لا يقاس - من الفرح في العرس والعيد، ولذلك يبقى هذا
‏‏‏‏الحكم خاصا به صلى الله عليه وسلم ، لا يقاس به غيره، لأنه من باب قياس
‏‏‏‏الحدادين على الملائكة، كما يقول بعضهم. وقد ذكر نحو هذا الجمع الإمام
‏‏‏‏الخطابي في " معالم السنن "، والعلامة صديق حسن خان في " الروضة الندية " (2
‏‏‏‏/ 177 - 178) .
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